Wednesday, February 22, 2017

वेद प्रकाश शर्मा का चले जाना  




19 February 2017 को ऐसे हि मोबाइल पे न्यूज़  scroll कर रहा था, पता  चला  की "वेद प्रकाश शर्मा" नहीं रहें। याद  नहीं कब उनके  बारे में आखरी बार  सुना था,  पर अचानक उनका चले जाना एक shock सा लगा।  Age भी कोई ज्यादा नहीँ थी , ६२ बर्ष।  मन कहीं दूर  अतीत मे चला गया। याद करने की कोशिस किया की कब पहली बार मैं उनको जाना था।

वह भी एक जमाना था १९९० के सुरुवाती दसक .... तब टीवी का पहुँच आज जितना नहीं था । मनोरंजन का मुख्य साधन तब किस्से कहानी  पढ़ना ही था ।  मैं  हिंदी स्पीकिंग बेल्ट  से तो  था नहीं, उड़ीसा के एक  छोटे से कस्बे में हिंदी के एक उपन्यासकार को जानना इतना आसान भी नहीं था।  कहानी पढ़ने का शौक तो बचपन से था, तब सिर्फ ओड़िया किताबें पढ़ते थे, चित्रकथा जैसी  कुछ पौराणिक किताबें ओड़िया में भी निकलता था, सुरुवात वहीं से हुई।  फिर धीरे धीरे पढ़ने लगे JanhaMamu (Oriya Publication of Popular Children Magazine Chandamama), याद है कैसे हर  महीने इसका इंतज़ार रहता था।  फिर ओड़िया  जासूसी  किताबें पढ़ने लगे।  तब  तो  हिंदी पढ़ना आता भी नही था।  कई बार  घर के लोगों से यह भी सुनने को  मिलता था की यह सब पढ़ने का तुम्हारा उम्र नहीं, यह सब किताबें पढ़ना सही नही है। 

फिर आगे चलकर हिंदी पढ़ना सीखा और किस्से कहानी पढ़ने का इंटरेस्ट ने एक मैगज़ीन की दूकान में मुझे वेद प्रकाश शर्मा जी  से परिचित कराया। वह एक मैगज़ीन की दुकान थी, जहाँ से लोग रोजाना की किराये पर किताबें पढ़ने के लिए लेते थे। उन दिनों  जो भी कूछ लोग वहां हिंदी नोवेल्स पढ़ते थे , ज्यादा सामाजिक (परिबारिक) नोवेल्स ही थे।  पर मेरा इंटरेस्ट जासूसी  कहानियो में था , और कुछ ही लोग जासूसी किताबें पढ़ते थे ।  पहला किताब किसका पढ़ा था यह भी याद नहीं , पर इसी क्रम में वेद प्रकाश शर्मा जी का पहला किताब पढ़ा , वह भी कौनसा था मुझे पता नहीं , सायद  बिजय विकाश  सीरीज  का ही कोई किताब था।  यह  उनकी सबसे पॉपुलर नावेल कहे जाने वाला "बर्दी वाला गुंडा" प्रकाशित होने के पहले की बात है।  रहस्य रोमांच की एक अलग ही दुनिया थी वह, हर एक पेज  कहानी आगे बढ़ता था और लास्ट पेज तक थ्रिल बरक़रार रहता था। एक दिन में एक नावेल पढ़ लेता  था।  पहला तो  इंटरेस्टिंग होना कारण था , दूसरा यह भी था की दो दिन का रेंट न देना पड़े।  उन दिनों ५० पैसा या  एक रुपैया भी बहुत मायने रखता था। 

कितने नोवेल्स पढ़ लिए सारे का नाम भी याद नहीं , पर उनके किरदार मन में बस गये हैं, आज भी याद है, विजय, विकाश, रघुनाथ, रैना, अलफांसे , सिंघी।  वह हर देश के जासूसों को मात देना विजय और विकाश द्वारा , अजीबो गरीब हालात, पैनी सस्पेंस  ।  विजय, विकाश सीरीज के अलावा  थ्रिलर भी एक से एक थे। " बिधबा का पति" मैंने पहले ही पढ़ लिया था जिसके ऊपर १९९२ की फिल्म "अनाम" बानी थी।  मुझे सबसे रोमांचित किया १४ कड़ियों का उनका नावेल "देवकांता  संतति", आज भले ही पता है की यह बाबु देवकी नंदन खत्री की चंद्रकांता का अडॉप्टेशन है  या  यूँ कहें  ट्रिब्यूट है।   तब तक चंद्रकांता सीरियल भी नही आया था।  फिर इसी क्रममे मैंने उनके तबके नए नावेल "बर्दी बाला गुंडा" और "लल्लू"पढ़ा।  मुझे लल्लू ज्यादा  पसंद आया था , जिसके ऊपर बादमें "सबसे बड़ा खिलाडी" फिल्म बनी. उनकी उस समय की  एक और बहुप्रसंसित नावेल थी "बहु मांगे इन्साफ"  लेकिन  यह कभी मुझे मिला  ही नहीं । इसी नावेल का एक किरदार केशव पंडित इतना पॉपुलर हुआ की उसके ऊपर  नोवेल्स  का एक सीरीज  आया ।

यह एक दौर था, बाद में मैंने सुरेंद्र मोहन पाठक जी को भी खूब पढ़ा, उनके किरदार कुछ अलग थे , रियल थे।  बाद में  पता चला की इस तरह की नोवेल्स को Pulp Fiction या सस्ता साहित्य कहते हैं।  कहते होंगे , पर इसी तरह की किताबें आम लोगों को पसंद आते हैं, ठीक हमारी हिंदी मसाला फिल्मों  की तरह।  पता नहीं क्यों, बाद में इतनी सफल राइटर की किताबों पर और फ़िल्में नही बने। 

हर दौर गुजर जाता है, यह भी गुजर गया, पता नही कब यह नोवेल्स पढ़ना छूट सा गया।  सायद टीवी आ जाने की वजह से।  बाद में भी पढ़ना तो जारी रहा कुछ कुछ पर  वक़्त और उम्र के साथ टेस्ट बदल गया था।  आज  पसंद आते हैं चेतन भगत, रविन्द्र सिंह, दुर्जयो दत्ता , अरविंद अडिगा।  पर आज भी  रेलवे स्टेशन में  किताबों के स्टाल में आँख ढुढती है वेद प्रकाश शर्मा या सुरेंद्र मोहन पाठक की किताबें, कभी खरीद भी लिए, कभी अमेज़न से भी मंगा लीये , पर एक भी उनमे से पढ़ नही पाए. कहाँ एक दिन में एक  ख़त्म हो जाता था, अब कहाँ सालों  में  भी एक  ख़त्म नहीं हुआ। 


इतनी ज्यादा इनफार्मेशन के ज़माने में भी कभी खबर नही रख पाए वेद प्रकाश शर्मा कब तक लिखते रहे. हाँ पता था की उनकी किताबें आज भी निकलती हैं।  आंकड़े देखने से पता चलता है की कुल १७६ नोवेल्स उन्होंने लिखे हैं।   आज का दौर ही अलग है, मैं जॉब की वजह से हिंदी स्पीकिंग बेल्ट में ही रहता हूँ. हिंदी मेरी रोज की बोलचाल की भाषा बन गयी है।  क्या हिंदी बोलने जानने समझने में  वेद जी, सुरेंद्र जी का  अवदान से मैं इंकार कर सकता हूँ ? पर हिंदी स्पीकिंग बेल्ट में ही आज के दौर के लोग सायद वेद प्रकाश शर्मा  या सुरेंद्र मोहन  पाठक का नाम ही नहीं सुने होंगे, पढ़ना तो दूर की बात।  सस्ता साहित्य ही सही, लोग हिंदी या अपनी मातृभाषा में नोवेल्स, किताबें पढ़ते तो थे। 


अचानक वेद प्रकाश शर्मा जी का निधन का खबर एक खालीपन सा भर गया, अपनी अतीत का एक और अहम् चीज़  से नाता टूट गया जैसे।